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तवेदि॑न्द्राव॒मं वसु॒ त्वं पु॑ष्यसि मध्य॒मम्। सत्रा॒ विश्व॑स्य पर॒मस्य॑ राजसि॒ नकि॑ष्ट्वा॒ गोषु॑ वृण्वते ॥१६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taved indrāvamaṁ vasu tvam puṣyasi madhyamam | satrā viśvasya paramasya rājasi nakiṣ ṭvā goṣu vṛṇvate ||

पद पाठ

तव॑। इत्। इ॒न्द्र॒। अ॒व॒मम्। वसु॑। त्वम्। पु॒ष्य॒सि॒। म॒ध्य॒मम्। स॒त्रा। विश्व॑स्य। प॒र॒मस्य॑। रा॒ज॒सि॒। नकिः॑। त्वा॒। गोषु॑। वृ॒ण्व॒ते॒ ॥१६॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:32» मन्त्र:16 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:20» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवान् ! जो (तव) आपका (अवमम्) निकृष्ट वा रक्षा करनेवाला और (मध्यमम्) मध्यम (वसु) धन है जिससे (त्वम्) आप (पुष्यसि) पुष्ट होते जिस (विश्वस्य) समग्र (परमस्य) उत्तम धन के बीच (सत्रा) सत्य आप (राजसि) प्रकाशित होते हैं उसमें और (गोषु) पृथिवियों में (त्वा) आपको कोई भी शत्रु जन (नकिः) न (इत्) ही (वृण्वते) स्वीकार करते हैं ॥१६॥
भावार्थभाषाः - हे राजा ! आप सदैव निकृष्ट, मध्यम और उत्तम धनों का न्याय से ही संचय करो, जिसका धर्म्म से उत्पन्न होने से सत्य धन वर्त्तमान है, उसको कोई दुःख नहीं प्राप्त होता है ॥१६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा कीदृशः स्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! यत्तवाऽवमं मध्यमं वस्वस्ति येन त्वं पुष्यसि यस्य विश्वस्य परमस्य धनस्य मध्ये सत्रा त्वं राजसि तत्र गोषु च त्वा केऽपि शत्रवो नकिरिद् वृण्वते ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तव) (इत्) (इन्द्र) (अवमम्) निकृष्टं रक्षकं वा (वसु) द्रव्यम् (त्वम्) (पुष्यसि) (मध्यमम्) मध्ये भवम् (सत्रा) सत्यम् (विश्वस्य) समग्रस्य (परमस्य) उत्कृष्टस्य (राजसि) (नकिः) निषेधे (त्वा) त्वाम् (गोषु) पृथिवीषु (वृण्वते) स्वीकुर्वन्ति ॥१६॥
भावार्थभाषाः - हे राजँस्त्वं सदैव निकृष्टमध्यमोत्तमानां धनानां न्यायेनैव सञ्चयं कुर्य्याः यस्य धर्मजत्वात् सत्यं धनं वर्तते तं किमपि दुःखं नाप्नोति ॥१६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! तू उत्तम, मध्यम, निकृष्ट धन न्यायाने एकत्र कर. धर्माने उत्पन्न झाल्यामुळे ज्याचे धन सत्य असते, त्याला कोणतेही दुःख प्राप्त होत नाही. ॥ १६ ॥